Friday, April 29, 2011

"बेटी की व्यथा"


क्यों भेजा था बाबुल तूने
दुनियाँ के गलियारों में  ?
कैसे खुद की रक्षा करती
इन मदमस्त बहारों में  ?

जान के बेटी ,मेरे संग क्यों
सौतेला व्यवहार किया
क्यों ना समझूँ औरों जैसा
तूने भी व्यापार किया.
बेटा होता ,यदि मैं
करता तू परवाह हजारों में...........

सबकी आँखें गड़ी हुई थी
मेरी यौवन गगरी  में
कब तक खुद को बाँध मैं पाती
संस्कार की गठरी में.
गठरी खुली,भ्रमित हो गई मैं
प्रियतम की मनुहारों में..........

कोरी चुनरिया ओढ़ के आई
थी, मैं तेरे इस जग में
राह में फिसलन ही फिसलन थी
फिसल गई मैं,जगमग में.
अब मुझ पर आरोप लगाता
बाबुल ! क्यों दरबारों में..............

अब तो अपने पास बुला ले
मैं तेरी ही जायी हूँ
भूल के भी मत कहना बाबुल !
बेटी एक परायी हूँ.
अग्नि-परीक्षा ले के देख
मैं पली-बढ़ी अंगारों में.................

-अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर,दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Wednesday, April 27, 2011

अब तो ताना धूप पर कसने लगे हैं लोग.....


दूर   अपनों   से   बहुत  ,  बसने   लगे   हैं     लोग
 आईना    रख   सामने  ,  हँसने   लगे    हैं    लोग.

दाँत - काटी   रोटियों  के ,लद गए वो  दिन सुनहरे
अब  वफ़ा  के   दाँत   से  ,  डसने   लगे   हैं   लोग.

चढ़   तरंगों  पर  जो  पश्चिम  से  चली  आई यहाँ
उन   मकड़ियों   के जाल  में , फँसने  लगे हैं लोग.

गंगा-जमुना की इबादत , छोड़  कर  न जाने क्यों
पाप  की  दल-दल  में  अब , धँसने  लगे  हैं  लोग.

इल्म की किरणों का जाने,हश्र  होगा क्या 'अरुण'
अब  तो  ताना  धूप  पर  ,  कसने  लगे  हैं   लोग.

-अरुण कुमार निगम
एच .आई.जी. १ - २४
आदित्य नगर,दुर्ग
छत्तीसगढ़

Saturday, April 23, 2011

''दो शब्द''

  
            क्षितिज ने गर्व से कहा - मैंने दिशाओं को बाँध लिया है. कल्पना आश्वस्त न हुई.उड़ चली , दिशाओं की वल्गाओं को देखने. युग बीते.....कल्पना उड़ती चली किन्तु क्षितिज की दूरी कम न हो सकी. तो क्या क्षितिज अस्तित्वहीन है ?  फिर दृष्टा क्यों ?   कल्पना का भ्रम नहीं टूटा.  क्षितिज का दर्शन उसकी गति बन गया. कल्पना के पग में बँधे नुपूर झंकृत हो उठे.  संगीत नर्तन कर बैठा. गीत अस्तित्व में आया.

            कल्पना ने मरुथल पर उड़ती दृष्टि डाली. एक हिरनी व्याकुलता  लिए भटक रही थी. तृष्णा ने नीर -मिलन की कामना को बलवती कर दिया था. कल्पना ठहरी ,  हिरन से व्याकुलता का कारण पूछा.हिरन ने भ्रम-नीर को इंगित किया. कल्पना ने उसका भ्रम तोड़ना चाहा किन्तु बावरी हिरन ने विश्वास नहीं किया.नीर-भ्रम के लिए उसने प्राण त्याग दिए.

            कल्पना की स्वतन्त्र नभ में गति देख ह्रदय भी अकुलाया. वह भी एक अस्तित्व को, जो द्रष्टा था, अंकपाश में लेने की ललक में पाषाण से टकराया. टूट कर बिखर गया किन्तु वही टूटन गुंजन बन गई. एक गीत अस्तित्व में आया.

            क्या भ्रम के पीछे भागूँ ?  वह छल है - फिर भी मेरी प्रेरणा है. उस प्रेरणा के अभाव में गति गीत नहीं बन सकती. उस टूटन की पीड़ा के बिना जीवन में माधुर्य नहीं .

           आज उस प्रेरणा के लिए विरासत में क्या छोडूँ ? मृत्योन्मुख  हूँ  .शेष रह गई है तुम्हारी पीड़ा.  विरासत में अपनी प्रेरणा को उसकी ही पीड़ा सौंप रहा हूँ. मेरा समर्पण काश ! व्यर्थ न होता,  काश ! वह मेरी विरासत स्वीकार करती....खैर !


-अरुण कुमार निगम
 

Thursday, April 21, 2011

कहानी - "बिम्ब-प्रतिबिम्ब"

                                              
                                                                                                   
            अपने एक चेहरे  से सहम कर मैंने दर्पण तोड़ दिया.हर एक टुकड़े में मेरा वही चेहरा मुझे मुँह चिढ़ाने लगा.आज जब सौंदर्य-बोध हुआ है तो सुन्दरता की परिभाषा में मेरा चेहरा कहीं भी खड़ा नहीं हो पा रहा है.बिना मांगे ही मेरे दामन में निश्छल प्रेम का सौन्दर्य बिखरा रहा .रूप के अहंकार में मुझ निगोड़ी से दामन समेटते भी न बना,दामन सिमटाती ही रही.
            लोग कहते  थे कि मैं  गाँव में  सबसे सुंदर हूँ .दर्पण भी यही कहता था.रोज इसी दर्पण के सामने बैठ कर घंटों खुद को निहारते रहती थी.गाँव के मनचले युवक ही नहीं बल्कि प्रौढ़ और अधेड़ भी जब मुझसे बात करने का बहाना निकाल लेते थे तो मुझे बड़ा अच्छा लगता था .शाम को मेरी गली में चहल-पहल बढ़ जाती थी.मेरी एक  झलक देख कर बहुत से चेहरों पर संतोष छा जाता था तो मेरे अहम् को बड़ी तुष्टि मिलती थी.मुझे कहीं बाहर जाना होता तो बस और टैक्सी में मेरे लिए बिना  कहे ही जगह बन जाती थी.लिफ्ट मांगने की जहमत भी नहीं उठानी पड़ती थी.किसी के आग्रह को स्वीकार कर उसे ही कृतार्थ कर बैठती थी.
            लगभग  साल भर पहले ही वे इस गाँव में नये-नये आये थे.व्यक्तित्व में बहुत आकर्षण तो नहीं था फिर भी उनकी आँखों में एक अजीब सा सम्मोहन था.पहली ही मुलाकात में मुझसे ऐसा व्यवहार कर रहे थे मानों बरसों से परिचित रहे हों.उनकी हर बात पर मैंने हाँ-हूँ के सिवा कुछ नहीं कहा.पहली ही मुलाकात में बड़ी आत्मीयता जता गये.मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी.मुझसे मिलनेवाला हर शख्स मेरे  प्रति ऐसी ही आत्मीयता जताने लगता था.फर्क इतना ही था कि इनकी आत्मीयता में कोई आग्रह शामिल नहीं  था.मैंने बहुत ज्यादा खुलना उचित नहीं समझा क्योंकि मेरा अहम् शायद कहीं आहत हो जाता.
            साल भर में उनसे मुश्किल से बारह-पंद्रह मुलाकातें ही हुई.मैंने दूरियाँ बनाये रखी.उन्होंने भी नजदीक आने का प्रयास नहीं किया ,मगर हर मुलाकात में ऐसा अपनापन दे जाते थे कि मैं घर आकर उनके बारे में सोचने को मजबूर हो जाया करती थी.वे हमेशा मुझे "तुम" कहकर संबोधित करते और बड़े प्यार से नाम लेकर बुलाते थे.वे कभी मेरे घर नहीं आये मगर हर मुलाकात में मेरा इतना ज्यादा ख्याल रखते थे कि कभी ऐसा लग जाता था मानों  हम एक ही परिवार के सदस्य हों.उन्होंने कभी प्रणय-निवेदन नहीं किया,कभी मुझे छूने कि चेष्टा भी नहीं की.हाँ ! एक बार अपने घर जरुर आने को कहा था.मेरे 'क्यों' पूछने पर बस मुस्कुराकर रह गये थे.मुझे लगा था-न जाने इनकी नीयत में क्या खोट है,हालाँकि मेरे टाल जाने पर उन्होंने तनिक भी बुरा नहीं माना था .
            उनका व्यवहार कभी भी बदला हुआ सा नहीं लगा.हमेशा वही प्यार भरा,आत्मीयता भरा.एक बार मुझसे पूछा था-तुम साड़ी क्यों नहीं पहनती ? प्रत्युत्तर मैंने केवल मुस्कुरा दिया था.उन्होंने इस बात को दोबारा भी नहीं पूछा.मैं उनमे बहुत रूचि नहीं लेती थी फिर भी मेरी इच्छा होती थी कि वे मेरी तारीफ करें.उन्होंने एक बार भी मेरी सुन्दरता की तारीफ नहीं की.एक बार बस इतना ही कहा था-तुम्हारे हाथ का खाना खाने को मन करता है.मुझे लगा शायद वे मेरे घर आने का बहाना तलाश कर रहे हैं.इसी वजह से मैं टाल गई,फिर उन्होंने दोबारा खाने के बारे में बात नहीं की.
            मेरे मन में उनके प्रति कई प्रकार की जिज्ञासाएं जन्म लेती रहीं.कभी ऐसा लगता था कि वे मुझे चाहते हैं मगर कभी भी ऐसा प्रस्ताव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में नहीं रखा जिससे मेरे भ्रम को पुष्टि मिल सके.कभी मुझे यह भी भ्रम होता था कि वे मुझे 'टाइम-पास' का साधन तो नहीं समझते ? मगर उनकी आत्मीयता में ऐसा हल्कापन रत्ती भर भी नजर नहीं आता था.कभी राह चलते मुझे टॉफी ही पकड़ा देते,न जाने क्यों ? मैं कई बार उनके व्यवहार के बारे में सोचने को मजबूर हो जाती थी कि वे मुझसे कौन सा रिश्ता जोड़ना चाहते हैं.मैं उस रिश्ते का नाम जानना चाहती थी.लाख तलाशने पर भी मुझे उस रिश्ते का नाम नहीं मिल पाया.
            मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी.मुझे लगता था कि मुझे क्या गरज है जो उनके बारे में कुछ जानूँ.मैंने पूछा भी नहीं और उन्होंने बताया भी नहीं.ऐसा भी नहीं था कि वे हर किसी से ऐसा ही खुला-खुला सा व्यवहार करते हों.बस मेरे प्रति ही उनका व्यवहार इतना आत्मीय हो उठता था और मुझे कई तरह के भ्रम होने लगते थे.
            आज शाम को मैं टहलती हुई उनकी गली से होकर गुजरी.मैंने उनका घर भी  नहीं देखा  था.इतना ही जानती थी कि यहीं कहीं ही वे रहते हैं.अचानक ही वे मिल गये.मुझे देखते ही हमेशा की  तरह ख़ुशी से मेरे पास आये और सिर्फ इतना ही कहा-आओ तुम्हे चाय पिलाते हैं.न जाने क्यों ,मैं इंकार न कर सकी और सम्मोहित सी उनके साथ हो ली.घर में घुसते ही एक किशोर के कानों में उन्होंने कुछ इस अंदाज से कुछ कहा जैसे वह बचपन से उनका दोस्त हो.पूछने पर पता चला कि वह दोस्त नहीं उनका बेटा है.मुझे आश्चर्य हुआ.वे हमेशा के अंदाज में बोले -आओ आज तुम्हारी मुलाकात हम अपनी जीवन-संगिनी से कराते हैं,तभी उनकी धर्मपत्नी गुनगुनाती हुई बैठक में आई.मैं उन्हें देखती ही रह गई.सर से पाँव तक जैसे शीशे को तराश कर नारी का रूप दे दिया गया हो.बड़ी-बड़ी कजरारी आँखे,कटीली भौहें,गुलाबी होंठ,सुराहीदार गर्दन,वाणी में मिश्री की मिठास.श्रृंगार नाम मात्र भी नहीं.चेहरे पर अहंकार की एक भी रेखा नहीं.शांत-सौम्य रूप में समर्पण का भाव.
            उनके अप्रतिम सौंदर्य को मैं अपलक निहारते ही रह गई.मेरे रूप का गुमान रेत के महल सा ढह गया.चटाई बिछाते हुए वे बोलीं-सारा सामान गाड़ी में लद गया है,बुरा नहीं मानना,तुम पहली बार आई हो और चटाई में बिठाना पड़ रहा है.बस कुछ ही देर में हम निकल  जायेंगे.मैंने उत्सुकता से पूछा-कहाँ जाने की  बात हो रही है ? उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया-इनका ट्रांसफर रायपुर हो गया है.बस इस गाँव से दाना-पानी उठ गया है,लेकिन तुम्हें तो चाय पिलाकर ही जायेंगे.इसके पहले कि औपचारिकता निभाने के नाम पर मैं चाय के लिए मना करती,उनके बेटे ने चाय का प्याला सामने रख दिया.
            किंकर्तव्यविमूढ़ होकर मैं चाय की चुस्कियां लेती रही और न जाने कब चुपके से उनके घर से निकल कर अपने घर लौट आई.बड़ी देर तक दर्पण में खुद को देखती रही.मेरा प्रतिबिम्ब जो रोज ही मेरे अहंकार को बढ़ाता था,आज मुझ पर हँस रहा था.मैं उसे घूरती रही.मैंने कोई बाजी नहीं खेली थी फिर भी न जाने क्यों मुझे लग रहा था कि मैं हार गई हूँ.मैं अपने खिलखिलाते हुए प्रतिबिम्ब को बर्दाश्त नहीं कर सकी और मैंने दर्पण के टुकड़े-टुकड़े कर दिये.
-अरुण कुमार निगम
एच .आई.जी.I / 24 ,आदित्य नगर
तितुरडीह, दुर्ग (छत्तीसगढ़)