Wednesday, April 27, 2011

अब तो ताना धूप पर कसने लगे हैं लोग.....


दूर   अपनों   से   बहुत  ,  बसने   लगे   हैं     लोग
 आईना    रख   सामने  ,  हँसने   लगे    हैं    लोग.

दाँत - काटी   रोटियों  के ,लद गए वो  दिन सुनहरे
अब  वफ़ा  के   दाँत   से  ,  डसने   लगे   हैं   लोग.

चढ़   तरंगों  पर  जो  पश्चिम  से  चली  आई यहाँ
उन   मकड़ियों   के जाल  में , फँसने  लगे हैं लोग.

गंगा-जमुना की इबादत , छोड़  कर  न जाने क्यों
पाप  की  दल-दल  में  अब , धँसने  लगे  हैं  लोग.

इल्म की किरणों का जाने,हश्र  होगा क्या 'अरुण'
अब  तो  ताना  धूप  पर  ,  कसने  लगे  हैं   लोग.

-अरुण कुमार निगम
एच .आई.जी. १ - २४
आदित्य नगर,दुर्ग
छत्तीसगढ़

1 comment:

  1. चढ़ तरंगों पर जो पश्चिम से चली आई यहाँ
    उन मकड़ियों के जाल में , फँसने लगे हैं लोग
    क्या बात है अरुण भाई पूरा का पूरा सूफियाना नजरिया है आपका
    दुष्यंत कि याद आ गई|कल और आज के बीच -क्या से क्या हो गया
    आपकी कविता में दर्शन है |साहित्य कि विधा में आप आलराउंडर
    हो

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