Saturday, July 16, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता ,,,,,,,,,,(भाग – 13)

 
{ श्रीमती सपना निगम की कलम से }
बचपन से ही गाँवों तथा ग्रामीण परम्पराओं के प्रति रुझान होने के कारण मुझे गाँवों में छुट्टियाँ व्यतीत करने में बहुत आनंद आता था. नानी के गाँव की ही बात है (इस गाँव का संक्षिप्त वर्णन भाग-12 में कर चुकी हूँ) किसी वृद्ध की मृत्यु हुई थी. सारे ग्रामीण मृतक के घर के सामने जमा होकर सांत्वना प्रकट कर रहे थे. गाँव के किनारे एक वृक्ष के नीचे दाह-संस्कार में सहयोग के उद्देश्य से हर घर से जलाऊ लकड़ियाँ और कण्डे जमा किये जा रहे थे. यह एक परम्परा के तहत हो रहा था.
सारी लकड़ियाँ और कण्डे एक बैलगाड़ी में रख कर श्मशान स्थल की ओर रवाना किये गये. दोपहर को वृद्ध की अर्थी काँधों पर उठाई गई और श्मशान ले जाने लगे. बीच-बीच में काँधे बदलते रहे. शव-यात्रा के आगे आगे बैंड बाजा वाले बैंड बजाते हुये चल रहे थे. यह दृश्य मेरे लिये बिल्कुल ही नया था . बाजे-गाजे के साथ शव यात्रा !! बाद में ज्ञात हुआ कि जो व्यक्ति अपनी पूरी जिंदगी (लगभग 90 वर्ष के आसपास) जीने के बाद मरता है तो उसे बैंडबाजे के साथ ससम्मान बिदा किया जाता है.
मृतक का दाह संस्कार हो जाने का समाचार आने के बाद मृतक के घर से महिलायें कतारबद्ध होकर गाँव के बाहर स्थित तालाब में नहाने के लिये निकलीं. इसे नहावन के लिये जाना कहा जाता है. एक के पीछे एक चलती हुई महिलाओं की लम्बी सी कतार. गाँवों में यह भी मान्यता है कि नहावन की इस कतार को क्रास या ओव्हर टेक नहीं किया जाता. यदि नहावन के लिये जाती हुई यह कतार किसी मुख्य मार्ग को पार कर रही होती है तो उस मार्ग का आवगमन तब तक स्व-स्फूर्त रुक जाता है जब तक कि कतार मार्ग को पूर्णत: पार नहीं कर लेती है. तालाब में नहाने के बाद ये महिलायें गीले कपड़े में ही पुन: कतारबद्ध होकर लौटीं.
नहावन की यह प्रक्रिया लगातार तीन दिनों (अस्थि-विसर्जन तक) चली. इन तीन दिनों तक मृतक के घर में चूल्हा नहीं जला . गाँव में उनके समाज वाले अपने-अपने घरों से खाना बना कर लाते रहे  और मृतक के परिजनों को खिलाते रहे. दसवें या तेरहवें दिन मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा-पाठ सम्पन्न कर परिवार के ज्येष्ठ पुत्र के सिर पर साफा (पगड़ी की भाँति) बाँधकर उसे परिवार के मुखिया का दर्जा दिया गया और गाँव वालों को भोज कराया गया.
यह पोस्ट गाँव की बिल्कुल ही साधारण सी घटना पर लिखी गई है किंतु जरा सोचिये बड़े शहरों और महानगरों में जहाँ अर्थी को काँधे की बजाय वाहन पर ढोकर विद्युत शव गृहों में अंतिम संस्कार हेतु ले जाया जाता है , मृतक के परिजनों के पास सांत्वना प्रकट करने की महज औपचारिकतायें दो से पाँच मिनट में निपटाई जाती हैं ,क्या नई पीढ़ी के लिये ये परम्परायें और मान्यतायें आश्चर्यजनक नहीं होगी ? अपनी मान्यताओं और परम्पराओं को आश्चर्यजनक बना कर हम किस तरह की प्रगति कर रहे हैं ?????
-श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर ,
दुर्ग (छत्तीसगढ़)

Thursday, July 7, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता ,,,,,,,,,,(भाग – 12)


{श्रीमती सपना निगम की कलम से}
सन् 1978 की गर्मियों की छुट्टियों में नानी के गाँव गई थी. शहरी ताम-झाम से बहुत दूर एकदम दुर्गम क्षेत्र में स्थित उस गाँव में बिजली भी नहीं पहुँची नहीं थी. आस-पास जंगल ही जंगल. शाम होते-होते में खाना बन जाया करता था. खाना पकाने के किये लकड़ी और मिट्टी का चूल्हा प्रयोग में लाया जाता था. गाँव के किसी न किसी घर में दिन भर आग जला करती थी. गाँव भर के लोग उस घर में खपरैल (कवेलू) लेकर आग मांगने जाते और दहकते हुये कोयले लेकर अपने घर के चूल्हे में आग जलाते थे. अंधेरा होते –होते में खाना खाकर सोने की तैयारी में जुट जाते थे.
ऐसे ही एक रोज रात होने को थी. खाने की तैयारियाँ चल रही थी. बाहर से किसी महिला के रो-रो कर चीखने और चिल्लाने की आवाज आने लगी .मेरी नानी फौरन बाहर निकली और उसके पीछे-पीछे मैं भी भागी. पड़ौस में एक व्यक्ति अपनी पत्नी को पीटे जा रहा था. उसके घर वाले उस व्यक्ति को और उकसा कर कहे जा रहे थे अच्छा ठठा अपन डौकी ला, बड़ बढ़-चढ़ के गोठियाथे “(अच्छे से पीट अपनी पत्नी को, बहुत बढ़-चढ़ कर बात करती है.) पास-पड़ौसी बीच बचाव करने कोशिश कर भी रहे थे लेकिन वह व्यक्ति इतने अधिक गुस्से में था कि बीच में आने वालों को भी बुरी तरह से धक्का देकर हटा दे रहा था. बेचारी महिला रोये जा रही थी. गाँव के लोग घेरा बना कर चुपचाप इस घटना को देखे जा रहे थे.कुछ देर बाद उस व्यक्ति का गुस्सा शांत हुआ और वह पिटाई करना बंद करके अपने घर में घुस गया. कुछ ही देर बाद वह महिला भी घर में चली गई. ग्रामीण दर्शक भी अपने-अपने घरों में चले गये. मैं और नानी भी घर आ गये.
मैंने नानी से पूछा कि वह व्यक्ति अपनी पत्नी को क्यों पीट रहा था. नानी ने बताया कि गाँव में तो अक्सर ऐसी घटनायें होती ही रहती हैं. खेत से पति जल्दी आ गया , पत्नी जरा देर से पहुँची ,खाना बनने में विलम्ब हुआ तो पिटाई ,  ससुराल के किसी भी सदस्य के हुक्म को नहीं माना तो पिटाई . गाँव में किसी भी घर की बहू उस गाँव की बहू मानी जाती है  अत: गाँव भर के सभी बड़ों के सामने उनके सम्मान में सिर पर पल्ला रखना पड़ता है. कभी अंजाने में भी किसी बड़े-बुजुर्ग के सामने से सिर पर पल्ला रखे बिना कोई बहू गुजर गई और उस बुजुर्ग ने पति महोदय पर ताना कस दिया कि तेरी पत्नी बड़े-बुजुर्ग का लिहाज करना नहीं जानती ,तो पिटाई.गाँव में अपनी पत्नी को पीटने के लिये कोई बड़ा कारण होना जरुरी नहीं होता था. यह माना जाता था कि जो पति अपनी पत्नी को जितना ज्यादा डरा धमका कर काबू में रखता है वह उतना ही सफल पति माना जाता है.
दूसरे दिन सुबह-सुबह नानी के साथ पानी भरने के लिये गाँव के कुँए पर गई . रात को मार खाने वाली महिला भी पानी भरने के लिये आई हुई थी. उसकी हम उम्र अन्य महिलायें उसे सांत्वना दे रही थी. अरे ! जउन डौका अपन डौकी ला ज्यादा मारथे वो हा मया घलो ज्यादा करथे ( अरी ! जो पति अपनी पत्नी को ज्यादा पीटता है वह प्यार भी ज्यादा करता है.) ऐसी सांत्वना देने के पीछे शायद दो मकसद थे . एक तो यह कि पीड़ित महिला के मन में पति के प्रति अधिक दुराव की भावना पैदा न हो और उनका घर टूटने से बचे. दूसरा यह कि पति चाहे कितना भी दुष्ट क्यों न हो ,पत्नी अन्य किसी के मुँह से अपने पति की बुराई नहीं सुन सकती ,यही नारी स्वभाव है. अत: उसके पति को दुष्ट करार करके संत्वाना नहीं दी जा सकती थी .शायद इसीलिये उन महिलाओं ने ज्यादा पीटने वाले पति को ज्यादा प्यार करने वाला पति बताते हुये सांत्वना दे कर उसकी पीड़ा को कम करने का प्रयास  किया था.
ये घटनायें एक जमाने में हुआ करती थी. अब गाँवों में स्थितियाँ बदल चुकी हैं . ग्रामीण महिलायें बिल्कुल अनपढ‌ नहीं रह गई हैं. आंगन-बाड़ी और विद्यालयों में अपनी उपयोगिता साबित कर रही हैं. स्व-सहायता समूहों के जरिये अपना आर्थिक उत्थान भी कर रही हैं. कई गाँवों में सरपंच बनकर कुशल प्रबंधन द्वारा गाँव का विकास भी कर रही हैं. 
-श्रीमती सपना निगम

Sunday, July 3, 2011

मेरा बचपन ऐसे बीता ,,,,,,,,,,(भाग – 11)


{श्रीमती सपना निगम की कलम से}
बचपन की स्मृतियों में जाओ तो बहुत सारी बातें मन को गुदगुदा जाती है, बहुत सी बातें उदास कर जाती हैं .बहुत सी घटनायें ऐसी होती हैं जो बदलती हुई या लुप्त होती परम्पराओं का भान कराती हैं. कुछ ऐसी ही घटनायें याद आ गई जिसकी पुनरावृत्ति अब इस युग में सम्भव नहीं लगती है.
बचपन में कभी माँ या नानी के साथ बाजार जाती थी तो कुछ ग्रामीण परम्परायें देखने को मिलती थी . बाजार में जब दो समधी मिलते थे तो वे आपस में कस कर गले मिल कर मिलने की खुशी प्रकट करते थे. इसे छत्तीसगढ़ में समधी – भेंट कहा जाता है. वहीं महिलायें अपनी समधन से मिल कर दोनों एक दूसरे के पैर छूती थीं.
एक दिन बाजार में देखा कि दो ग्रामीण महिलायें एक दूसरे से गले लग कर रोये जा रही थीं. उनमे से एक अधेड़ और दूसरी बूढ़ी थी.  मैं उनके पास खड़ी होकर उन्हें देखने लगी. अधेड़ महिला कुछ गा गा कर रोती जा रही थी . उसके शब्दों पर जब गौर किया तो जाना कि बूढ़ी महिला के पति की मृत्यु हो चुकी है , उस शोक से व्यथित होकर अधेड़ महिला रो रोकर अपनी सम्वेदनायें प्रकट कर रही है.
उस जमाने में छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल के कुछ समाजों में महिलाओं में बहुत दिनों बाद मिलने पर गले लग कर गा-गा कर रोने की प्रथा थी. इस रुदन में भी एक लयबद्धता होती थी. कई बार केवल इसलिये भी गले लग कर रोते  कि उनकी मुलाकात ही बड़े दिनों बाद हुई है.
अपनी भावनायें हृदय से व्यक्त की जाती थीं. यह विचार मन में आता ही नहीं था कि बाजार में पैर छूते या गले मिलकर रोते हुये देख कर बाजार में आये हुये अन्य लोग क्या सोचेंगे.
प्रथा भले ही अजीब सी लगती है किंतु भावनाओं में कितनी पवित्रता थी. एक दूसरे के सुख – दु:ख में उपजी सम्वेदनायें अंतर्मन से निकलती थी. आज यह परम्परा लुप्तप्राय हो गई है. न जाने और भी कितनी ही अच्छी परम्परायें खो चुकी हैं. आज का युग अंतरंग भावनाओं और सम्वेदनाओं से दूर होता जा रहा है. औपचारिकताओं से ही काम चलाया जा रहा है.

श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)