{ श्रीमती सपना निगम की कलम से }
बचपन से ही गाँवों तथा ग्रामीण परम्पराओं के प्रति रुझान होने के कारण मुझे गाँवों में छुट्टियाँ व्यतीत करने में बहुत आनंद आता था. नानी के गाँव की ही बात है (इस गाँव का संक्षिप्त वर्णन भाग-12 में कर चुकी हूँ) किसी वृद्ध की मृत्यु हुई थी. सारे ग्रामीण मृतक के घर के सामने जमा होकर सांत्वना प्रकट कर रहे थे. गाँव के किनारे एक वृक्ष के नीचे दाह-संस्कार में सहयोग के उद्देश्य से हर घर से जलाऊ लकड़ियाँ और कण्डे जमा किये जा रहे थे. यह एक परम्परा के तहत हो रहा था.
सारी लकड़ियाँ और कण्डे एक बैलगाड़ी में रख कर श्मशान स्थल की ओर रवाना किये गये. दोपहर को वृद्ध की अर्थी काँधों पर उठाई गई और श्मशान ले जाने लगे. बीच-बीच में काँधे बदलते रहे. शव-यात्रा के आगे आगे बैंड बाजा वाले बैंड बजाते हुये चल रहे थे. यह दृश्य मेरे लिये बिल्कुल ही नया था . बाजे-गाजे के साथ शव यात्रा !! बाद में ज्ञात हुआ कि जो व्यक्ति अपनी पूरी जिंदगी (लगभग 90 वर्ष के आसपास) जीने के बाद मरता है तो उसे बैंडबाजे के साथ ससम्मान बिदा किया जाता है.
मृतक का दाह संस्कार हो जाने का समाचार आने के बाद मृतक के घर से महिलायें कतारबद्ध होकर गाँव के बाहर स्थित तालाब में नहाने के लिये निकलीं. इसे नहावन के लिये जाना कहा जाता है. एक के पीछे एक चलती हुई महिलाओं की लम्बी सी कतार. गाँवों में यह भी मान्यता है कि नहावन की इस कतार को क्रास या ओव्हर टेक नहीं किया जाता. यदि नहावन के लिये जाती हुई यह कतार किसी मुख्य मार्ग को पार कर रही होती है तो उस मार्ग का आवगमन तब तक स्व-स्फूर्त रुक जाता है जब तक कि कतार मार्ग को पूर्णत: पार नहीं कर लेती है. तालाब में नहाने के बाद ये महिलायें गीले कपड़े में ही पुन: कतारबद्ध होकर लौटीं.
नहावन की यह प्रक्रिया लगातार तीन दिनों (अस्थि-विसर्जन तक) चली. इन तीन दिनों तक मृतक के घर में चूल्हा नहीं जला . गाँव में उनके समाज वाले अपने-अपने घरों से खाना बना कर लाते रहे और मृतक के परिजनों को खिलाते रहे. दसवें या तेरहवें दिन मृतक की आत्मा की शांति के लिये पूजा-पाठ सम्पन्न कर परिवार के ज्येष्ठ पुत्र के सिर पर साफा (पगड़ी की भाँति) बाँधकर उसे परिवार के मुखिया का दर्जा दिया गया और गाँव वालों को भोज कराया गया.
यह पोस्ट गाँव की बिल्कुल ही साधारण सी घटना पर लिखी गई है किंतु जरा सोचिये बड़े शहरों और महानगरों में जहाँ अर्थी को काँधे की बजाय वाहन पर ढोकर विद्युत शव गृहों में अंतिम संस्कार हेतु ले जाया जाता है , मृतक के परिजनों के पास सांत्वना प्रकट करने की महज औपचारिकतायें दो से पाँच मिनट में निपटाई जाती हैं ,क्या नई पीढ़ी के लिये ये परम्परायें और मान्यतायें आश्चर्यजनक नहीं होगी ? अपनी मान्यताओं और परम्पराओं को आश्चर्यजनक बना कर हम किस तरह की प्रगति कर रहे हैं ?????
-श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर ,
दुर्ग (छत्तीसगढ़)