Monday, September 19, 2011

बेटी बचाओ अभियान :


सृष्टि ही जब नष्ट होगी
सृजन की फिर कल्पना क्या  ?
पूरने वाली न हो तो
द्वार पर फिर अल्पना क्या  ?

लक्ष्मी जब ना रही
कैसे मनाओगे दीवाली  ?
सोचिये बिन अन्नपूर्णा
सज सकेगी कैसे थाली  ?

ना रही देवी अगर तो
देवता की अर्चना क्या  ?
सृष्टि ही जब नष्ट होगी
सृजन की फिर कल्पना क्या  ?

पुत्र ही बस पुत्र होंगे
पुत्र –वधु आयेगी  कैसे  ?
वंश-वृद्धि की लता
आंगन में लहरायेगी कैसे  ?

जब नहीं किलकारियाँ फिर
हर्ष क्या और वेदना क्या  ?
सृष्टि ही जब नष्ट होगी
सृजन की फिर कल्पना क्या  ?

तुम यदि बेटे औ बेटी में
जरा भी फर्क दोगे
पूर्वजों के पास जब
जाओगे तो क्या तर्क दोगे  ?

छोड़ दो संहार , समझो
बेटियों बिन सर्जना क्या  ?
सृष्टि ही जब नष्ट होगी
सृजन की फिर कल्पना क्या  ?

रचनाकार - अरुण कुमार निगम 

प्रस्तुतकर्ता - 

श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़.

Friday, September 16, 2011

राजभाषा मास :-

चौदह सितम्बर को हिंदी दिवस पूर्ण उत्साह से मनाया गया. सितम्बर का महीना भी राजभाषा के रूप में सोल्लास मनाया जा रहा है. समाचार पत्रों में नित्य ही  समाचार आ रहे है . अमुक विभाग में हिंदी पखवाड़े का शुभारम्भ, हिंदी पर कार्यशाला आयोजित,  हर जगह हुआ राजभाषा का सम्मान, हिंदी दिवस पर अमुक संस्था में बैठक, अमुक कार्यालय में हिंदी पखवाड़े का समापन, राष्ट्रभाषा को सशक्त बनाने की शपथ ली, अमुक कार्यालय ने मनाया हिंदी पखवाड़ा, हिंदी दिवस के आयोजन पर विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन.
हिंदीमय वातावरण देख कर मन पुलकित हो उठा है. अन्य उत्सवों की भाँति हिंदी-उत्सव का आयोजन भी होना ही चाहिये. राजभाषा मास में अनेक रचनाकारों को अवसर प्राप्त होते हैं. वरिष्ठ रचनाकारों के मुख्य आतिथ्य में प्रेरणादायी बातें और उनकी रचनाओं का प्रसाद प्राप्त होता है. विशेषकर नवोदित रचनाकारों के लिये तो ये आयोजन अति उपयोगी साबित हो रहे हैं. शिक्षण संस्थाओं में अध्यापक, विद्यार्थी और विभिन्न संस्थाओं में अधिकारी और कर्मचारी अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से अपनी पहचान बना पाते हैं.
हिंदी के प्रति प्रेम सभी के हृदय में है किंतु जीवन पर पाश् चात्य शैली के प्रभाव ने अपने आप को ज्ञानी जताने के लिये  अंग्रेजी को अपनाने के लिये बाध्य कर दिया है. स्वतंत्र होने के बाद भी मानसिक गुलामी ने अभी तक जकड़ कर रखा है. अंग्रेजी नहीं बोल पाने या नहीं लिख पाने पर हीनता का बोध कराया जा रहा है. यह अच्छी बात नहीं है. हिंदी को हेय दृष्टि से देखना किसी महापाप से कम नहीं है. भाषा सम्प्रेषण के लिये है, ज्ञान के मूल्यांकन के लिये नहीं. 
कोई हिंदी जानता ही न हो तो सम्प्रेषण हेतु अन्य भाषा या संकेतों का प्रयोग उचित भी है किंतु जहाँ हिंदी को जानने-समझने वाले हैं वहाँ बोलने और लिखने में हिंदी का ही प्रयोग करना चाहिये. कितने ही बड़े व्यक्ति या अधिकारी से बात करनी हो ,अपनी बात पूर्ण आत्म विश्वास और गर्व के साथ हिंदी में ही करें चाहे वह अपनी बात अंग्रेजी में ही करता रहे. इसी प्रकार से अपना कार्यालयीन पत्र-व्यवहार भी नि:संकोच हिंदी में ही करें. धीरे-धीरे उस अंग्रेजी के ज्ञानी को हिंदी में सम्प्रेषण के लिये बाध्य होना ही पड़ेगा.
देवनागरी लिपि एक मात्र ऐसी लिपि है जिसमें लिपि के अनुसार ही उच्चारण होते हैं. हिंदी का शब्द भंडार समुद्र सा विशाल है. इसका साहित्य इतना समृद्ध है कि सारा विश्व इसी से ज्ञान प्राप्त कर रहा है. हिंदी की भाव सम्प्रेषण क्षमता असीम है. मनुष्य के हृदय में उठने वाले हर तरह के भावों को हिंदी में व्यक्त किया जा सकता है. हम इतनी सशक्त भाषा का ज्ञान रखते हैं  फिर हीनता-बोध क्यों  ?  आईये हीनता-बोध का नाश करें और हिंदी पर गर्व करें.
“जय हिंदी – जय देवनागरी” 

श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़.

Wednesday, September 14, 2011

हिंदी दिवस पर विशेष :संकल्प


आज सितम्बर चौदह का दिन
आओ इसको पर्व करें
प्राण-प्रतिष्ठा करें हृदय में
हिंदी पर हम गर्व करें.

संस्कृत भाषा की बिटिया यह
लोक भाषाओं की दीदी
सरल,सुबोध,सर्व-मान्य है
भारत की भाषा –हिंदी.

ऋषियों के आंगन में खेली
प्रांत-प्रांत में बढ़ी – पली
जन गण मन को प्यार दिया पर
कुछ अपनों से गई छली.

यथा लिपि तथा उच्चारण
देवनागरी अद्भुत  है
अलंकार-व्याकरण सुसज्जित
भाव-गागरी अद्भुत है.

अपनी भाषा मलिन न होवे
आओ काया-कल्प करें
हिंदी दिवस का पावन दिन है
आओ कुछ संकल्प करें.

हर कोई  बोले हिंदी में
हिंदी में सब काज करे.
ऐसा करें सभी मिलजुल करके
हिंदी जग में राज करे.

रचनाकार - अरुण कुमार निगम 

प्रस्तुतकर्ता - 

श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़.

Sunday, September 11, 2011

गणेश विसर्जन - “गणपति बप्पा मोरिया”


(40 पंक्तियों में भाव-सुमन)
ग्यारह दिन “गणपति” “गणराजा”
आकर  मोरी  कुटिया   विराजा.

सुबह – साँझ नित आरती पूजा
“गणपति” सम कोई देव न दूजा.

तन, मन,धन से सेवा भक्ति
जिसने भी  की  पाई शक्ति.

मस्तक बड़ा – बुद्धि परिचायक
मुख-मुद्रा  अति  आनंददायक .

बड़े  कान हैं   सुनते  सबकी
दु:ख – पीड़ाएँ हरते सबकी. 

“मोदक प्रिय” का उदर विशाला
कहे  -  सभी की  बातें पचा जा.

सूँड़ कहे - नाक रखो ऊँची
मान  करेगी   सृष्टि समूची.

“वक्रतुंड”,   सिंह-वाहन धारे
ईर्ष्या-जलन,मत्सरासुर मारे.

परशुराम जी से युद्ध में टूटा
एक दाँत का साथ था छूटा.

“एकदंत”  तब  ही  से  कहाये
नशारूपी मदासुर को मिटाये.

बड़े पेट वाले   हे !  “महोदर”
मोहासुर राक्षस का किया क्षर.

गज- सा मुख “गजानन” कहाये
लोभासुर को आप मिटाये.

लम्बा पेट ”लम्बोदर” न्यारे
राक्षस क्रोधासुर संहारे.

“विकट” रूप मयूर पर बैठे
कामासुर का अंत कर बैठे.

“विघ् न राज” जी विघन विनाशे
शेषनाग वाहन पर विराजे.

“धूम्रवर्ण” मूषक पर प्यारे
अभिमानासुर को संहारे.

ज्ञान – बुद्धि   अउ आनंददायक
जय जय जय हो “अष्ट विनायक”.

आज विसर्जन की घड़ी आई.
हुआ हवन अब झाँकी सजाई.

मूरत जाये ,प्रभु नहीं जाना
तुम भक्तों के हृदय समाना.

बहुत जरूरी अगर है जाना
अगले बरस प्रभु जल्दी आना.

रचनाकार - अरुण कुमार निगम 


प्रस्तुतकर्ता -
श्रीमती सपना निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़.

Saturday, September 3, 2011

कहानी : प्रतीक्षा


      अर्पण गुलमोहर की शीतल छाँव में बैठा , तपन का आभास कर रहा है. शिशिर की शीतल पवन, ज्येष्ठ - लू जैसे ही मचल रही है. वातावरण हिम बनने  से भयभीत है किंतु अर्पण न जाने किन ज्वालाओं में झुलस रहा है. सम्भवत: अब आ ही जायेगी, बस इसी सम्भावना में संध्या आकर चली गई और रजनी की श्यामल पलकें शनै:-शनै: उपवन के मद्धिम प्रकाश पर छाती जा रही है. सम्भावना ने अब निराशा का रूप धारण कर लिया है और निराशा ने समय की पगडंडी पर पग धर कर विश्वास से कहा – अब वह नहीं आयेगी.

     हाँ ! प्रतीक्षा अब नहीं आयेगी. अर्पण का हृदय स्वीकार कर चुका है इस सत्य को किंतु मन के किसी कोने से अभी भी प्रतीक्षा के कदमों की आहट कहीं से आ रही है. निश्चय ही यह आहट भ्रम-मात्र है, छल है.....मात्र छल.

अचानक...........निर्विकार सा अर्पण अंतस के अंतर्द्वंद्व के न जाने किस पक्ष पर विजय पा चुका है. प्रतीक्षारत नयनों में निराशा के पश्चात यह विजय-ज्योत्सना चमक उठी है और इसी ज्योत्सना में अर्पण ने देखा – उसका दुर्बल मन उसके समक्ष खड़ा होकर अभयदान मांग रहा है. 

अर्पण ने पूछा – रे मन ! तू क्यों मेरी राह रोक कर खड़ा हो गया ?......

मन ने कहा - तू प्रतीक्षा से प्रेम करता है. मैंने देखा है कि निराशा के पश्चात तेरे अधरों पर विजय की मुस्कान झलक रही है. इस मुस्कान का क्या कारण है ?

“ स्वयं को पतन से बचा कर मैंने प्रसन्नता का आभास किया है “.

“ झूठ ! बिल्कुल झूठ, प्रतीक्षा को विस्मृत करके तू विजय की मुस्कान लाकर प्रसन्न होने का निष्फल प्रयास मन कर “.

“ अरे ! मन तू वहीं का वहीं रहा. मील का पत्थर “.............

“मील का पत्थर नहीं,मैं तुम्हारा मार्ग हूँ और उद्देश्य तक तुम्हें पहुँचाने में समर्थ हूँ “.

मन की इस बात पर अर्पण हँस पड़ा – “ बड़ा पागल है रे ! मार्ग भी तो स्थिर होता है, स्थिरता कब उद्देश्य तक पहुँचने में साथ देगी ? मैं गतिशील हूँ, मुझमें प्रवाह है. तू मेरा सेतु बना तो मैं बाढ़ बन कर तेरा अस्तित्व मिटा दूंगा “......

भयभीत होकर मन ने कहा – “ अरे नहीं भाई ! प्रेमी हृदय में यह विनाश की भावना शोभा नहीं देती “.

“ तू जिसे विनाश कह रहा है ,वही प्रेम का पर्याय है “.

“ देख अर्पण ! जिद मत कर. तू प्रतीक्षा से प्रेम करता है, तुझे बढ़कर उसका हाथ थामना होगा.प्रतीक्षा नारी है. लज्जा और रिवाजों की जंजीरें उसे बाध्य कर देती हैं “.

“ बड़ा जादू कर दिया है रे ! तुझ पर प्रतीक्षा ने, बड़ा पक्ष ले रहा है. माना कि प्रतीक्षा नारी है किंतु प्रेम-पाश में बंधी नारी के समक्ष ये बंधन कुछ भी नहीं. मीरा का कृष्ण-प्रेम तू तो जानता ही है “........

“ अर्पण ! तुझे अचानक प्रतीक्षा से इतनी घृणा क्यों “ ?

“ रे मन ! यह घृणा नहीं है, अपेक्षा है. प्रेम क्या है ? एक विश्वास, एक समर्पण, एक त्याग, प्रतीक्षा में ऐसी कोई दृढ़ता नहीं है. पुरुष का तटस्थ रहना ही उचित है, नारी का झुकना ही शोभनीय है “.

“अर्पण, यह तेरा घमंड बोल रहा है,  नारी को इतना निरीह बनाने का तुझे कोई अधिकार नहीं है “.

“ मन ! नारी और पुरुष के सम्बंध प्रकृति में निहित हैं. वृक्ष सदैव तटस्थ होता है. लता उससे जाकर स्वयं लिपटती है. उसकी यही चेष्टा उसका उत्थान करती है, यदि लता से लिपटने को वृक्ष झुका तो उसका पतन हो जायेगा. यदि सम्हल भी गया तो उसकी जड़ें कमजोर हो जायेंगी. फिर वह कभी नहीं उठ सकता. वृक्ष-लता का सम्बंध स्त्री-पुरुष के सम्बंध का प्रतीक है. यदि मैं प्रतीक्षा की ओर झुकता गया तो अंतत: गिर जाऊंगा और हमेशा के लिये वह मुझ पर हावी हो जायेगी. मेरा बावलापन और उतावलापन एक कमजोरी होगी जिसे आभास कर प्रतीक्षा सोचेगी कि मैं उसके बिना नहीं रह सकता और सचमुच ही मैं उसके हाथों की कठपुतली बनकर रह जाऊंगा “.

“ तो अर्पण ! तू प्रतीक्षा को अपने कदमों में झुका कर उस पर शासन करना चाहता है “.

 नहीं मन ! मैं उसे झुकाने के पक्ष में नहीं हूँ. वह मेरे समकक्ष है, मेरे तुल्य है. उसे केवल अपनी देहरी से मेरी ओर अग्रसर होना चाहिये. मैं स्वयं उसकी देहरी में प्रवेश नहीं करना चाहता “.

“ अर्पण ! तेरा यह रूखापन प्रतीक्षा के मन में संदेह बन कर तेरे ही प्रति घातक साबित हो सकता है. यह भी सम्भव है कि अन्य को वह आलम्बन मान बैठे “.

“हाँ रे ! मैं तेरे इस सुविचार का स्वागत करता हूँ. प्रतीक्षा के संदेह और परावलम्बन का दृष्टिकोण उसके प्रेम को कसौटी पर कसेगा. जहाँ प्रेम है, वहाँ संदेह के लिये कोई स्थान नहीं हो सकता. वह वह एकाकी मृत्युपाश को स्वीकार कर सकता है किंतु पर-आलम्बन की कल्पना से मुक्त होता है “.

“ नहीं अर्पण ! आदर्शों और सिंद्धांतों की इतनी गहराई में मत जा. पृथ्वीराज बन कर अपनी संयोगिता को जग से छीन ले “.

“ हाँ मन ! मैं पृथ्वीराज बनने के पूर्व प्रतीक्षा को संयोगिता के चरित्र में गढ़ना चाहता हूँ. वह संयोगिता जो अपने पिता के समक्ष, आमंत्रित राजकुमारों के कंठ में स्वयम्वर का हार न पहनाकर चौराहे पर स्थापित पृथ्वीराज के उपेक्षित पुतले को वरना स्वीकार करती है. काश ! प्रतीक्षा, संयोगिता बने तो मुझे पृथ्वीराज बनकर अपहरण करने में आपत्ति नहीं होगी “.

मन ने कहा – “ अर्पण ! मैंने तुझमें देखा है कि तू स्वयम स्थिर होकर प्रतीक्षा से ही पहल की इच्छा रखता है “.

हाँ मन ! मैं सूर्य हूँ, मैं स्थिर हूँ. दहकता हूँ और गगनांचल में सुनहरे तार बुनता हूँ. मेरी प्रेयसी को पृथ्वी की भाँति मेरे चारों ओर परिभ्रमण करना चाहिये. प्रकृति के सम्बंधों में तूने देखा है कितनी ही पृथ्वियाँ सूर्य के चक्कर लगाती हैं किंतु सूर्य स्थिर है. पृथ्वी स्वयम भी चक्कर काटती है, अपनी धुरी पर. यदि यह क्रम टूटा तो पृथ्वी में प्रलय आ जायेगा. मैं प्रकृति के इसी सिद्धांत पर प्रतीक्षा को गतिशील रखना चाहता हूँ. मै अपने आदर्शों और सिद्धांतों पर अटल हूँ “.

     मन ने अर्पण की इस अटलता और हठधर्मिता के समक्ष हार स्वीकार कर ली. अर्पण के खोखले आदर्श और सिद्धांत उसकी समझ से परे थे. मन मूक हो गया है. उसे ज्ञात है कि अर्पण की  यह हठधर्मिता ही उसके विनाश का कारण बन जायेगी. मन मृत हो जायेगा, तर्क-शून्य हो जायेगा और मन के मृत होने से अर्पण नितांत अकेला हो जायेगा. मन कुछ सोच रहा है और अर्पण अपने निवास की ओर बढ़ रहा है.........मन न जाने किन अज्ञात गतिविधियों की प्रतीक्षा कर रहा है.

( रचना तिथि 17.08.1979 )

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग
छतीसगढ़